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(कु.दर्शिता श्रीवास्तव)
सुबकी – सुबकी पलकों की चादर में छिपी
ख्वाबों की रोशनी कुछ कह रही…
कुछ कह रही…
ढकी – ढकी नीले आसमान में दिखी…
उड़ानों की बारिशें… बह रही, बह रही…
रात के कम्बल में…
सितारों की… मस्तियां
नींद के बगल में…
उड़ते ख्वाबों की गलियॉं
पहचान लो… तुम अनोखी पहचान हो…
गिरने दो… खुद को… फिर खुद ही तुम संभल लो
क्योंकि जिंदगी के इस सफर में…
तुम चंद दिनों के ही मुसाफिर हो
तो…
जी लो… खोल के अपनी बांहों को…
पी के… हर लम्हें की पनाहों को…
जी लो… तुम जी लो…
खोल के अपनी बांहों को…
रोक के… शक के सुराखों को…
मिले तुम्हें… वही… तुम चाहो जो…
बस एक बार दिल से चाहो तो…
थमती हुई… सफर की फिज़ाओं में…
डूबती हुई नजऱ की दिशाओं में
एक नई… राह बना लो
खुद के संग भी कभी प्यार से मुस्कुरा लो…
हर समय,
हॅंसने का…
कोई न कोई बहाना बना लो…
डर की गहरी खाइयों में नहीं…
पहाड़ों से निकलती राहों में कहीं…
अपनी मंजिल तलाश लो!
धीमी ऑंच पे पकती जिंदगी को,
अपनी रूह की जलती हुई मशाल दो…
तुम खुद को… पहचान लो…
और…
जी लो… खोल के अपनी बांहों को!
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